चौहान राजवंश की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में कई मतभेद हैं, जो इसे और भी रहस्यमयी बनाते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख सिद्धांत हैं:
- अग्निकुंड कथा: पृथ्वीराज रासो (चन्दबरदाई) और प्रबंध चिंतामणी (मेरूतुंग) के अनुसार, चौहान अग्निकुंड से उत्पन्न हुए। इस पौराणिक कथा में बताया जाता है कि एक यज्ञ के दौरान अग्नि से चार राजपूत वंश—चौहान, परमार, सोलंकी, और प्रतिहार—उत्पन्न हुए। यह कहानी चौहानों को एक दिव्य और पौराणिक आभा देती है।
- वत्सगौत्रीय ब्राह्मण: बिजोलिया शिलालेख के आधार पर इतिहासकार दशरथ शर्मा ने चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण माना है, जिससे उनका वैदिक मूल सुझाया जाता है।
- विदेशी मूल: कर्नल टॉड, विलियम क्रुक, डॉ. बी.ए. स्मिथ, और डी.आर. भण्डारकर जैसे विद्वानों ने चौहानों को विदेशी जाति का बताया, संभवतः शक या हूण मूल का।
- सूर्यवंशी: पृथ्वीराज विजय और कान्हड़ दे प्रबन्ध जैसे ग्रंथों में चौहानों को सूर्यवंशी कहा गया है, जो उन्हें राम के वंश से जोड़ता है।
- अन्य मत: मुहणोत नैणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने भी अग्निकुंड सिद्धांत का समर्थन किया है, जो चौहानों की उत्पत्ति को और पुष्ट करता है।
ये विविध मत चौहान राजवंश की उत्पत्ति को एक पहेली बनाते हैं, जो इतिहास प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
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चौहान राजवंश की शुरुआत: सांभर और पुष्कर का उदय
चौहान राजवंश का प्रारंभिक शासन शाकम्भरी सपादलक्ष (सांभर) के आसपास था, जिसकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (वर्तमान नागौर) थी। कुछ महत्वपूर्ण तथ्य:
- बिजोलिया शिलालेख: इसके अनुसार, चौहान वंश के संस्थापक वासुदेव चौहान थे, जिन्होंने 551 ई. में इस वंश की नींव रखी। उन्होंने सांभर झील का निर्माण करवाया, जो आज भी राजस्थान की ऐतिहासिक धरोहर है।
- पुष्कर का महत्व: हम्मीर महाकाव्य के अनुसार, चौहानों का प्रारंभिक शासन पुष्कर के आसपास था। यह क्षेत्र धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण था, और चौहानों ने इसे अपनी शक्ति का केंद्र बनाया।
- प्रमुख शाखाएँ: सांभर के चौहानों की प्रमुख शाखाएँ थीं—लाट, धवलपुरी, प्रतापगढ़, शाकम्भरी, रणथम्भौर, नाडोल, जाबालिपुर, और सप्तपुर के चौहान।
शाकम्भरी के चौहान: वीरता और शौर्य की मिसाल
शाकम्भरी के चौहानों ने कई शक्तिशाली शासकों को जन्म दिया, जिन्होंने अपनी वीरता, बुद्धिमत्ता, और सांस्कृतिक योगदान से इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया। यहाँ कुछ प्रमुख शासकों की कहानियाँ हैं:
1. वासुदेव चौहान: वंश का आदिपुरुष
- संस्थापक: वासुदेव चौहान को चौहान राजवंश का संस्थापक माना जाता है। बिजोलिया शिलालेख, सुर्जन चरित्र, और दशरथ शर्मा की अर्ली चौहान डायनेस्टी जैसे स्रोत इसे पुष्ट करते हैं।
- राजधानी: उन्होंने अहिच्छत्रपुर (नागौर) को अपनी राजधानी बनाया।
- सांभर झील: उनके द्वारा बनवायी गई यह झील आज भी पर्यटकों और इतिहास प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
2. दुर्लभराज प्रथम: मुस्लिम आक्रमण का सामना
- मुस्लिम आक्रमण: दुर्लभराज प्रथम चौहान शासक थे, जिनके समय अजमेर पर मुस्लिम आक्रमण हुआ। उन्होंने इस आक्रमण का डटकर मुकाबला किया।
3. गुवक प्रथम: स्वतंत्रता का प्रतीक
- स्वतंत्र शासक: गुवक प्रथम चौहान वंश का पहला स्वतंत्र राजा था।
- हर्षनाथ मंदिर: उन्होंने सिकर में हर्षनाथ मंदिर का निर्माण करवाया, जो चौहानों का इष्टदेव माना जाता है। यह मंदिर राजस्थानी स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।
4. वाक्पतिराज: पुष्कर का योद्धा
- पुष्कर अभिलेख: इसके अनुसार, वाक्पतिराज शाकम्भरी के चौहान वंश के शासक थे। उनके वंशज सिंहराज ने दिल्ली के तोमर और कन्नौज के प्रतिहार शासकों को हराकर महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
5. सिंहराज: पहला महाराजाधिराज
- विजय: सिंहराज चौहान वंश के पहले शासक थे, जिन्होंने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उन्होंने तोमर और प्रतिहार शासकों को पराजित किया।
- रानी आत्मप्रभा: उनकी रानी आत्मप्रभा (रुद्राणी) पुष्कर झील में एक हजार दीपक जलाकर भगवान शिव की पूजा करती थीं। वे यौगिक क्रिया में निपुण थीं, जो उनकी आध्यात्मिक शक्ति को दर्शाता है।
6. विग्रहराज द्वितीय: चालुक्यों पर विजय
- हर्षनाथ अभिलेख (973 ई.): यह अभिलेख विग्रहराज द्वितीय के शासनकाल की जानकारी देता है। उन्हें प्रारंभिक चौहानों का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है।
- विजय: उन्होंने गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराया और भड़ौंच में आशापुरी माता मंदिर बनवाया, जो चौहानों की कुलदेवी को समर्पित है।
- संघर्ष: शाकम्भरी के चौहानों का सबसे लंबा संघर्ष गुजरात के चालुक्यों के साथ रहा।
7. दुर्लभराज द्वितीय: दुर्लध्यमेरू
- उपाधि: अभिलेखों में उन्हें दुर्लध्यमेरू (जिसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन न कर सके) कहा गया है। शक्राई अभिलेख में उन्हें महाराजाधिराज की संज्ञा दी गई।
- शासन: उनके शासन ने चौहानों की शक्ति को और मजबूत किया।
8. गोविन्द तृतीय: वैरीघट्ट
- उपाधि: पृथ्वीराज विजय के अनुसार, गोविन्द तृतीय ने वैरीघट्ट (शत्रुसंहारक) की उपाधि धारण की थी।
- विजय: उन्होंने शत्रुओं का दमन कर चौहान वंश की प्रतिष्ठा बढ़ाई।
9. अजयराज: अजमेर का संस्थापक
- अजयमेरु: अजयराज (1105-1133 ई.) ने 1113 ई. में अजयमेरु (अजमेर) नगर और अजयमेरु दुर्ग की स्थापना की।
- सिक्के: उन्होंने अजयप्रिय द्रम्म नामक चाँदी और ताँबे के सिक्के चलाए, जिनमें उनकी पत्नी सोमलेखा का नाम भी अंकित था।
- विजय: उन्होंने गर्जन मातंगों को पराजित किया, जिससे उनकी शक्ति का विस्तार हुआ।
10. अर्णोराज (आनाजी): आनासागर का निर्माता
- उपाधियाँ: अर्णोराज (1133-1155 ई.) ने महाराजाधिराज, परमभट्टारक, और परमेश्वर की उपाधियाँ धारण कीं।
- आनासागर झील: उन्होंने 1137 ई. में अजमेर में इस खूबसूरत झील का निर्माण करवाया।
- वराह मंदिर: पुष्कर में उन्होंने वराह मंदिर बनवाया।
- दरबारी विद्वान: उनके दरबार में देवबोध और धर्मघोष जैसे प्रकांड विद्वान थे।
- पितृहंता: 1155 ई. में उनके पुत्र जगदेव ने उनकी हत्या की, जिसके कारण जगदेव को पितृहंता कहा गया।
11. विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव): स्वर्णयुग
- स्वर्णयुग: विग्रहराज चतुर्थ (1158-1163 ई.) का काल चौहानों का स्वर्णयुग माना जाता है।
- दिल्ली पर कब्जा: वे दिल्ली पर अधिकार करने वाले पहले चौहान शासक थे, जिन्होंने ढ़िल्लिका (दिल्ली) के तोमर राजा को हराया।
- साहित्यिक योगदान: उन्होंने संस्कृत में हरिकेली नाटक की रचना की, जो भारवि के किरातार्जुनियम पर आधारित है। उनके दरबारी कवि सोमदेव ने ललित विग्रहराज नाटक लिखा।
- सरस्वती कंठाभरण: उन्होंने अजमेर में इस संस्कृत विद्यालय की स्थापना की, जिसे 1199 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़कर अढाई दिन का झोंपड़ा (मस्जिद) बनवाया।
- बीसलपुर: उन्होंने बीसलपुर नगर (वर्तमान टोंक) और बीसलपुर बाँध बनवाया।
- पशु वध पर प्रतिबंध: उनके दरबारी विद्वान धर्मघोष सूरी के कहने पर उन्होंने एकादशी के दिन पशु वध पर रोक लगाई।
- कवि बंधु: जयानक भट्ट ने उन्हें कवि बान्धव की उपाधि दी।
12. पृथ्वीराज तृतीय: अंतिम प्रतापी शासक
- जन्म और राज्याभिषेक: पृथ्वीराज तृतीय का जन्म 1166 ई. में गुजरात के अन्हिलपाटन में हुआ। 11 वर्ष की आयु में 1177 ई. में उनका राज्याभिषेक हुआ, जिसमें उनकी माता कर्पूरी देवी (कलचूरि राजकुमारी) संरक्षिका बनीं।
- उपाधियाँ: उन्होंने रायपिथौरा और दलपुंगल (विश्व विजेता) की उपाधियाँ धारण कीं।
- प्रमुख युद्ध:
- तुमुल का युद्ध (1182 ई.): पृथ्वीराज ने महोबा के चंदेल शासक परमार्दिदेव को हराया। इस युद्ध में चंदेल सेनापति आल्हा और उदल वीरगति को प्राप्त हुए।
- तराईन का प्रथम युद्ध (1191 ई.): पृथ्वीराज ने मुहम्मद गौरी को हराया। उनका सेनापति चामुण्डराय था। इस युद्ध के बाद उन्होंने तबरहिंद पर कब्जा किया और जियाउद्दीन को बंदी बनाया।
- तराईन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.): इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई। मुहम्मद गौरी ने उन्हें सिरसा के पास बंदी बनाकर गजनी ले गया।
- विवाह: उन्होंने कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचंद की पुत्री संयोगिता को स्वयंवर से उठाकर अजमेर लाया और विवाह किया।
- सांस्कृतिक योगदान: उनके दरबारी कवि चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो लिखा। अन्य विद्वान जैसे जयानक (पृथ्वीराज विजय), वागीश्वर, और विद्यापति गौड़ उनके दरबार में थे। उन्होंने दिल्ली में पिथोरागढ़ किला बनवाया।
- अंत: तराईन के द्वितीय युद्ध के बाद, उनके पुत्र गोविन्दराज ने मुहम्मद गौरी की अधीनता स्वीकार की। बाद में उनके चाचा हरिराज ने विद्रोह किया, लेकिन कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर में मुस्लिम शासन स्थापित किया।
रणथम्भौर के चौहान: हम्मीर देव की अमर गाथा
रणथम्भौर के चौहान वंश की स्थापना पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र गोविन्दराज ने 1194 ई. में की। इस शाखा का सबसे प्रतापी शासक हम्मीर देव चौहान था।
हम्मीर देव चौहान (1282-1301 ई.)
- प्रतापी शासक: हम्मीर को हम्मीर हठ के नाम से जाना जाता है, जो उनकी दृढ़ता और साहस को दर्शाता है।
- विजय: उन्होंने मेवाड़ के शासक समरसिंह को हराया और 17 युद्धों में से 16 में विजय प्राप्त की।
- स्रोत: उनकी जानकारी हम्मीर महाकाव्य (नयनचंद्र सूरी), हम्मीर रासो (जोधराज), हम्मीर बंधन (अमृत कैलाश), हम्मीर हठ (चंद्रशेखर), और हम्मीरायण (व्यास भाण्ड) से मिलती है।
- प्रसिद्ध दोहा:
सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इकबार, तिरिया तेल हम्मीर हठ चढ़े न दूजी बार।
- युद्ध:
- झाईन का युद्ध (1291 ई.): जलालुद्दीन खिलजी ने झाईन दुर्ग पर आक्रमण किया, लेकिन गुरुदास सैनी के नेतृत्व में चौहान सेना ने इसे विफल किया।
- हिन्दूवाट घाटी युद्ध (1299 ई.): हम्मीर के सेनापति भीम सिंह और धर्मसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी की सेना को हराया, लेकिन भीम सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
- रणथम्भौर युद्ध (1301 ई.): अलाउद्दीन खिलजी ने छल-कपट से रणथम्भौर पर कब्जा किया। हम्मीर की रानी रंगदेवी ने जौहर किया, और उनकी पुत्री देवल देवी ने जल जौहर किया, जो राजस्थान का पहला जल जौहर था।
- सांस्कृतिक योगदान: हम्मीर ने श्रृंगार हार पुस्तक की रचना की। उनके दरबार में बीजादित्य जैसे विद्वान थे।
- न्याय की छतरी: उन्होंने अपने पिता जयसिंह के 32 वर्षों के शासन की याद में रणथम्भौर दुर्ग में 32 खंभों की छतरी बनवाई।
- अंत: 1301 ई. में रणथम्भौर की हार के बाद इस शाखा का अंत हो गया। अमीर खुसरो ने खजाइन-उल-फुतुह में इस युद्ध का वर्णन किया।
नाडोल के चौहान: लक्ष्मण की नींव
- संस्थापक: नाडोल के चौहान वंश की स्थापना वाक्पतिराज के पुत्र लक्ष्मण चौहान (लाखा) ने 960 ई. में की।
- आशापुरी मंदिर: लक्ष्मण ने 981 ई. में नाडोल में आशापुरी देवी का मंदिर बनवाया, जो चौहानों की कुलदेवी है।
- विजय: लक्ष्मण के पुत्र शोभित (सोही) ने भीनमाल के शासक मान परमार को हराकर भीनमाल पर कब्जा किया।
- महमूद गजनवी: नाडोल के शासक अहिल ने 1025 ई. में महमूद गजनवी के सोमनाथ आक्रमण का विरोध किया।
- जालोर की नींव: नाडोल के शासक अल्हण के पुत्र कीर्तिपाल ने 12वीं सदी में जालोर में चौहान वंश की स्थापना की।
जालोर के चौहान: सोनगरा शौर्य
- संस्थापक: कीर्तिपाल (कीतू) ने 1181 ई. में जालोर में चौहान वंश की स्थापना की। जालोर को प्राचीन काल में जाबालिपुर और इसके किले को सुवर्णगिरी कहा जाता था।
- समर सिंह: कीर्तिपाल के उत्तराधिकारी समर सिंह ने जालोर में कोषागार और शस्त्रागार बनवाए। उनकी पुत्री लीला देवी का विवाह गुजरात के भीमदेव द्वितीय से हुआ।
- उदय सिंह (1205-1257 ई.): उन्होंने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के 1228 ई. के आक्रमण को विफल किया।
- चाचिंग देव (1257-1282 ई.): उन्होंने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
- कान्हड़देव (1305-1311 ई.):
- प्रतापी शासक: कान्हड़देव जालोर का सबसे शक्तिशाली शासक था। उनकी जानकारी कान्हड़दे प्रबन्ध (पद्मनाभ) से मिलती है।
- सिवाना युद्ध (1308 ई.): अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाना दुर्ग पर कब्जा किया और इसका नाम खैराबाद रखा।
- जालोर युद्ध (1311-12 ई.): अलाउद्दीन ने कान्हड़देव के सेनापति बीका दहिया के सहयोग से जालोर पर कब्जा किया। कान्हड़देव और उनके पुत्र वीरमदेव वीरगति को प्राप्त हुए, और महिलाओं ने जौहर किया।
सिरोही के चौहान: देवड़ा शाखा
- संस्थापक: लुम्बा देवड़ा ने 1311 ई. में चंद्रावती और आबू में परमारों को हराकर सिरोही में चौहान वंश की स्थापना की। सिरोही को प्राचीन काल में अर्बुध प्रदेश और शिवपुरी कहा जाता था।
- सहसमल: उन्होंने 1425 ई. में वर्तमान सिरोही नगर की स्थापना की।
- लाखा देवड़ा: उन्होंने 1452 ई. में पावागढ़ से कालिका माता की मूर्ति सिरोही लाई और लाखनाव तालाब बनवाया।
- जगमाल: उन्होंने जालोर के मलिक मजीद खाँ को हराया।
- अखेराज: उन्होंने 1527 ई. में खानवा के युद्ध में मेवाड़ के राणा सांगा का साथ दिया।
- अंग्रेजों के साथ संधि: शिव सिंह ने 1823 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि की, जो राजस्थान की अंतिम रियासत थी।
- अंतिम शासक: अभयसिंह देवड़ा सिरोही के अंतिम शासक थे। 1950 में सिरोही का राजस्थान में विलय हुआ।
हाड़ौती के चौहान: बूँदी, कोटा, और झालावाड़
बूँदी के चौहान
- संस्थापक: देवासिंह हाड़ा ने 1241 ई. में मीणाओं से बूँदी छीनकर चौहान वंश की स्थापना की।
- तारागढ़ दुर्ग: बरसिंह हाड़ा ने 1354 ई. में इस किले का निर्माण करवाया, जो भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है।
- राव सुर्जन हाड़ा (1554-1585 ई.):
- स्वतंत्रता: उन्होंने 1568 ई. में बूँदी को मेवाड़ से स्वतंत्र किया।
- अकबर की अधीनता: 1569 ई. में उन्होंने रणथम्भौर दुर्ग में अकबर की अधीनता स्वीकार की।
- साहित्य: उनके दरबारी कवि चंद्रशेखर ने सुर्जन चरित्र और हम्मीर हठ लिखा।
- रतन सिंह हाड़ा (1607-1621 ई.): उन्होंने जहांगीर की सेवा की और रामराजा और सरबुलंदराय की उपाधियाँ प्राप्त कीं।
- बुद्ध सिंह (1695-1730 ई.): उन्होंने नेहतरंग ग्रंथ की रचना की। उनके समय मराठों का बूँदी में पहला हस्तक्षेप हुआ।
- उम्मेद सिंह (1749-1770 ई.): उन्होंने तारागढ़ दुर्ग में चित्रशाला की स्थापना की।
- अंत: बहादुर सिंह हाड़ा बूँदी के अंतिम शासक थे। 1948 में बूँदी का राजस्थान में विलय हुआ।
कोटा के चौहान
- संस्थापक: जैत्र सिंह हाड़ा ने कोटिया भील को हराकर कोटा पर कब्जा किया। कोटा को नंदग्राम भी कहा जाता था।
- माधो सिंह (1631-1648 ई.): शाहजहाँ ने उन्हें कोटा का स्वतंत्र शासक बनाया। उन्हें रफ्तार नामक घोड़ा उपहार में मिला।
- मुकुन्द सिंह (1648-1658 ई.): उन्होंने अबली-मीणी महल बनवाया, जिसे राजस्थान का दूसरा ताजमहल कहा जाता है।
- राव किशोर सिंह (1684-1696 ई.): उन्होंने किशोर सागर तालाब बनवाया।
- महाराव शत्रुसाल प्रथम (1756-1764 ई.): उन्होंने 1761 ई. में भटवाड़ा युद्ध में जयपुर के सवाई माधो सिंह को हराया। उनके सेनापति झाला जालिम सिंह को कोटा का दुर्गादास राठौड़ कहा जाता है।
- मांगरोल का युद्ध (1821 ई.): महाराव किशोर सिंह और दीवान झाला जालिम सिंह के बीच हुआ, जिसमें अंग्रेजों ने जालिम सिंह का साथ दिया।
- झालावाड़: 1838 ई. में अंग्रेजों ने कोटा से 17 परगने अलग कर झालावाड़ रियासत बनाई।
- अंत: महाराव भीम सिंह कोटा के अंतिम शासक थे। 1948 में कोटा का राजस्थान में विलय हुआ।
झालावाड़ के चौहान
- स्थापना: 1838 ई. में अंग्रेजों ने कोटा से 17 परगने अलग कर झालावाड़ रियासत बनाई। झाला मदन सिंह इसके पहले शासक थे।
- उपाधि: अंग्रेजों ने उन्हें राजराणा की उपाधि दी।
- 1857 की क्रांति: शासक पृथ्वी सिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया।
- भवानी नाट्यशाला: 1921 में राजराणा भवानी सिंह ने इसकी स्थापना की।
- अंत: हरिश्चंद्र झालावाड़ के अंतिम शासक थे। 1948 में झालावाड़ का राजस्थान में विलय हुआ।
चौहान राजवंश का योगदान: एक अमर विरासत
- स्थापत्य: सांभर झील, आनासागर झील, तारागढ़ दुर्ग, बीसलपुर बाँध, हर्षनाथ मंदिर, और आशापुरी मंदिर जैसे निर्माण।
- साहित्य: पृथ्वीराज रासो, हम्मीर महाकाव्य, हरिकेली, और कान्हड़दे प्रबन्ध जैसे ग्रंथ।
- संस्कृति: सरस्वती कंठाभरण विद्यालय, पशु वध पर प्रतिबंध, और धार्मिक स्थलों का निर्माण।
- वीरता: तराईन, रणथम्भौर, और जालोर जैसे युद्धों में चौहानों ने अपने शौर्य का परिचय दिया।
निष्कर्ष: चौहान राजवंश की अमर कहानी
चौहान राजवंश ने भारतीय इतिहास में अपनी वीरता, सांस्कृतिक समृद्धि, और शौर्य के साथ एक अनूठा स्थान बनाया। शाकम्भरी से हाड़ौती तक, इस वंश ने युद्ध के मैदानों से लेकर कला और साहित्य तक हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। चौहान राजवंश की कहानी हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है। क्या आपने इन ऐतिहासिक स्थलों को देखा है? अपनी राय कमेंट में जरूर बताएँ!