परमार वंश: Forgotten Power

By: LM GYAN

On: 13 June 2025

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परमार वंश

परमार शब्द का अर्थ है “शत्रुओं को मारने वाला,” जो इस वंश की वीरता को दर्शाता है। उनकी उत्पत्ति को लेकर कई सिद्धांत हैं, जो इसे और भी रोचक बनाते हैं:

  • अग्निकुंड कथा: पृथ्वीराज रासो के अनुसार, परमार वंश अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ। इस पौराणिक कथा में बताया जाता है कि एक यज्ञ के दौरान अग्नि से चार राजपूत वंश—परमार, चौहान, सोलंकी, और प्रतिहार—उत्पन्न हुए। यह कथा परमारों को एक दिव्य और पौराणिक आभा प्रदान करती है।
  • ब्रह्म क्षत्रकुलीन: उदयपुर प्रशस्ति, पिंगल सूत्रवृत्ति, और तेजपाल अभिलेख में परमारों को ब्रह्म क्षत्रकुलीन (ब्राह्मण और क्षत्रिय मिश्रित कुल) बताया गया है, जो उनके वैदिक मूल को दर्शाता है।
  • प्रारंभिक क्षेत्र: परमारों का प्रारंभिक राज्य आबू के आसपास था। प्रतिहारों के पतन के बाद, परमारों ने मारवाड़, गुजरात, सिंध, वागड़, और मालवा में अपने राज्य स्थापित किए।

आबू के परमार: चन्द्रावती का गौरव

आबू के परमार वंश ने अपनी सांस्कृतिक और सैन्य उपलब्धियों से इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान बनाया। यहाँ उनकी कहानी है:

1. धूमराज और उत्पलराज: वंश की नींव

  • कुल पुरुष: धूमराज को आबू के परमारों का कुल पुरुष माना जाता है, और वंशावली की शुरुआत उत्पलराज से होती है।
  • राजधानी: उनकी राजधानी चन्द्रावती थी, जो आबू क्षेत्र का सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र थी।

2. धरणीवराह: सोलंकियों से संघर्ष

  • सोलंकी संघर्ष: प्रारंभिक परमारों को गुजरात के सोलंकी शासकों से संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट धवल के शिलालेख से इसकी जानकारी मिलती है।
  • पराजय और पुनर्जनन: गुजरात के सोलंकी शासक मूलराज ने धरणीवराह को पराजित किया, जिसके बाद धरणीवराह को राष्ट्रकूट धवल की शरण लेनी पड़ी। फिर भी, धरणीवराह ने आबू पर पुनः अधिकार कर लिया।
  • महिपाल: धरणीवराह के पुत्र महिपाल का 1002 ई. में आबू पर शासन प्रमाणित होता है। इस समय तक परमारों ने सोलंकियों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

3. धंधुक: सोलंकी आधिपत्य

  • सोलंकी आक्रमण: धंधुक के समय सोलंकी शासक भीमदेव प्रथम ने आबू पर आक्रमण किया और विमलशाह को प्रशासक नियुक्त किया।
  • लाहिणी: धंधुक की विधवा पुत्री लाहिणी ने बसंतगढ़ में सूर्यमंदिर का निर्माण और सरस्वती बावड़ी का जीर्णोद्वार करवाया।

4. विक्रमदेव: महामण्डलेश्वर

  • उपाधि: विक्रमदेव ने महामण्डलेश्वर की उपाधि धारण की।
  • संघर्ष: द्वयाश्रय महाकाव्य (हेमचन्द्र) और कुमार प्रबन्ध (जिन मंडोपाध्याय) के अनुसार, विक्रमदेव ने सोलंकी शासक कुमारपाल और चौहान शासक अर्णोराज के बीच संघर्ष में भाग लिया।

5. धारावर्ष: सबसे पराक्रमी शासक

  • वीरता: धारावर्ष आबू के परमारों में सबसे पराक्रमी शासक था। उन्होंने सोलंकियों के साथ अच्छे संबंध स्थापित किए।
  • मुहम्मद गौरी: 1106 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक के अन्हिलवाड़ा आक्रमण के दौरान धारावर्ष ने गुजरात की सोलंकी सेना का नेतृत्व किया। इसकी जानकारी ताज-उल-मआसिर से मिलती है।
  • चौहान संबंध: धारावर्ष की रानियाँ श्रृंगार देवी और गीगा देवी नाडोल के चौहान राजा केल्हण की पुत्रियाँ थीं। पटनारायण मंदिर (1287 ई.) के शिलालेख से उनकी वीरता की जानकारी मिलती है।
  • स्वतंत्रता: सोलंकी शासक भीमदेव के अल्पवयस्क होने के कारण धारावर्ष स्वतंत्र हो गए थे।

6. प्रहलादनदेव: विद्वान और वीर

  • साहित्यिक योगदान: प्रहलादनदेव (धारावर्ष का छोटा भाई) ने पार्थ पराक्रमण व्यायोग नाटक की रचना की।
  • प्रशस्ति: कीर्ति कौमुदी (सोमेश्वर) और लूवणशाही मंदिर की प्रशस्ति उनकी वीरता और विद्वता की गवाही देती हैं。

7. सोमसिंह: सोलंकी सामंत

  • सामंत: धारावर्ष का पुत्र सोमसिंह सोलंकी शासक भीमदेव द्वितीय का सामंत था।
  • लूवणशाही मंदिर: इस काल में तेजपाल ने आबू में नेमीनाथ जैन मंदिर बनवाया।

8. प्रताप सिंह: चन्द्रावती पर पुनः कब्जा

  • विजय: प्रताप सिंह ने मेवाड़ शासक जैत्र सिंह को हराकर चन्द्रावती पर अधिकार किया।
  • उत्तराधिकारी: उनके बाद विक्रमसिंह आबू का शासक बना।

9. अंत: चौहान आधिपत्य

  • उपाधियाँ: विक्रमसिंह के काल में परमारों की उपाधियाँ रावल और महारावल थीं, जो मेवाड़ शासकों की भी थीं।
  • पतन: 1311 ई. में चौहान राव लूम्बा ने चन्द्रावती पर कब्जा कर परमार शासन समाप्त किया और चौहान राज्य की नींव डाली।

सांस्कृतिक योगदान

  • आदिनाथ मंदिर: 1031 ई. में विमलशाह ने आबू में भव्य जैन मंदिर बनवाया, जो दिलवाड़ा मंदिरों का हिस्सा है।
  • सूर्यमंदिर और सरस्वती बावड़ी: लाहिणी के योगदान ने आबू की सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ाया।

जालोर के परमार: एक छोटी शाखा

  • उत्पत्ति: जालोर के परमार आबू के परमारों की एक छोटी शाखा थे, जो धरणीवराह के वंशज माने जाते हैं।
  • प्रमुख शासक: 1087 ई. के शिलालेख (जालोर) में वाक्पतिराज, चन्दन, देवराज, अपराजित, विज्जल, धारावर्ष, और विसल का उल्लेख मिलता है।
  • वाक्पतिराज (960-985 ई.): जालोर के परमारों का पहला शासक था।

किराडू के परमार: सोलंकी सामंत

  • जानकारी: किराडू के शिवालय (1661 ई.) के लेख से किराडू के परमारों की जानकारी मिलती है।
  • राजधानी: सिंधुराज के समय किराडू राजधानी थी।
  • प्रमुख शासक: कृष्णराज, सोच्छराज, उदयराज, और सोमेश्वर
  • विजय: 1161 ई. में सोमेश्वर ने जैसलमेर के तनौट और जोधपुर के नौसर किलों पर कब्जा किया और चालुक्य शासक कुमारपाल की अधीनता स्वीकार की।

मालवा के परमार: विद्वता और वीरता का संगम

मालवा के परमार वंश ने अपनी विद्वता और सैन्य शक्ति से मालवा को गौरवशाली बनाया।

1. प्रारंभिक शासक

  • उत्पत्ति: मालवा के परमारों का मूल स्थान आबू था।
  • राजधानी: उज्जैन और बाद में धारानगरी
  • क्षेत्र: कोटा का दक्षिणी भाग, झालावाड़, प्रतापगढ़, और वागड़ के पूर्वी भाग।
  • शासक: उपेन्द्र, वैरीसingh प्रथम, सियक प्रथम

2. मुंज (972-990 ई.): पराक्रमी शासक

  • उपाधियाँ: वाक्पतिराज, उत्पलराज, अमोघवर्ष, पृथ्वीवल्लभ, श्रीवल्लभ
  • विजय: मुंज ने हूणों, केरल, चोल, हैहयवंशीय, मेवाड़ (शक्तिकुमार), चित्तौड़, और मालवा पर विजय प्राप्त की। उन्होंने चालुक्य शासक तैलप द्वितीय को छह बार हराया, लेकिन सातवीं बार में पराजित होकर मारे गए।
  • दरबारी विद्वान: हलायुध (अभिधान रत्नमाला), पद्मगुप्त (नवसहसांक चरित), धनंजय (दशरूपक), और धनिक (यशोरूपावलोक)।

3. भोज: कविराज और विद्वान

  • विद्वता: भोज को कविराज की उपाधि प्राप्त थी। अबुल फजल के अनुसार, उनकी राजसभा में 500 विद्वान थे।
  • राजधानी: भोज ने उज्जैन से धारा नगरी को राजधानी बनाया।
  • निर्माण: उन्होंने भोजपुर नगर और भोजसर तालाब बनवाया। त्रिभुवन नारायण शिवमंदिर (चित्तौड़) का निर्माण भी उनके समय हुआ, जिसका 1429 ई. में महाराणा मोकल ने जीर्णोद्वार करवाया।
  • ग्रंथ: भोज के प्रमुख ग्रंथ हैं—नाममालिका, युक्तिकल्पतरु (वास्तुशास्त्र), आयुर्वेदसर्वस्व, व्यवहार समुच्चय, शब्दानुशासन, सरस्वती कण्ठाभरण, राजमृगांक, विद्वज्जनमण्डल, समरांगण सूत्रधार, शृंगारमंजरी कथा, कूर्मशतक, सिद्धान्त समूह, राजमार्तण्ड, योगसूत्रवृत्ति, विद्याविनोद
  • भोजशाला: सरस्वती कण्ठाभरण नामक पाठशाला को भोजशाला के नाम से जाना जाता था।
  • दरबारी विद्वान: सुबन्धु, वररुचि, मेरुतुंग, वल्लभ, मानतुंग, भास्कर भट्ट, धनपाल, माघ, राजशेखर, अमर
  • सेनापति: जैन कुलचन्द्र उनके सेनापति थे।

4. जयसिंह और पतन

  • उत्तराधिकारी: जयसिंह भोज के बाद शासक बने। उनके समय वागड़ का शासक मण्डलीक उनका सामंत था।
  • पतन: उनके काल से मालवा के परमारों की शक्ति का पतन शुरू हुआ। 1135 ई. में चालुक्य राजा सिद्धराज ने मालवा पर कब्जा किया।
  • पुनरुत्थान: 13वीं सदी में अर्जुन वर्मा ने मालवा की शक्ति को पुनः स्थापित किया।
  • अंत: अंतिम शासक माल्हक देव को हराकर अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।

वागड़ के परमार: अर्थूणा का वैभव

  • उत्पत्ति: वागड़ के परमार मालवा के परमार शासक कृष्णराज के पुत्र डम्बर सिंह के वंशज थे।
  • राजधानी: उत्थूणक/अर्थूणा
  • क्षेत्र: डूंगरपुर और बांसवाड़ा (वागड़)।
  • प्रमुख शासक: धनिक, कंकदेव, सत्यराज, चामुण्डराज, विजयराज
  • मण्डलेश्वर मंदिर: 1079 ई. में चामुण्डराज ने अर्थूणा में इस मंदिर का निर्माण करवाया।
  • अंत: विजयराज (1108-1109 ई.) वागड़ के अंतिम परमार शासक थे। 1179 ई. में गुहिल शासक सामन्त सिंह ने वागड़ पर कब्जा कर परमार शासन समाप्त किया।
  • सांस्कृतिक महत्व: अर्थूणा वागड़ के परमारों का कला, संस्कृति, और स्थापत्य का प्रमुख केंद्र था।

परमार वंश का योगदान: एक अमर विरासत

  • स्थापत्य: आदिनाथ मंदिर (दिलवाड़ा), सूर्यमंदिर, सरस्वती बावड़ी, भोजसर तालाब, त्रिभुवन नारायण शिवमंदिर, और मण्डलेश्वर मंदिर जैसे निर्माण।
  • साहित्य: भोज के ग्रंथ (युक्तिकल्पतरु, समरांगण सूत्रधार), प्रहलादनदेव का पार्थ पराक्रमण व्यायोग, और अन्य दरबारी विद्वानों की रचनाएँ।
  • विद्वता: भोजशाला और 500 विद्वानों की राजसभा ने मालवा को विद्या का केंद्र बनाया।
  • वीरता: मुंज और धारावर्ष की विजयों ने परमारों की सैन्य शक्ति को स्थापित किया।

निष्कर्ष: परमार वंश की गौरव गाथा

परमार वंश ने अपनी वीरता, विद्वता, और सांस्कृतिक समृद्धि से भारतीय इतिहास में एक अनूठा स्थान बनाया। आबू से मालवा और वागड़ तक, इस वंश ने युद्ध, कला, और साहित्य में अपनी पहचान बनाई। भोज की भोजशाला, धारावर्ष की वीरता, और आदिनाथ मंदिर जैसे योगदान आज भी हमें प्रेरित करते हैं। क्या आपने इन ऐतिहासिक स्थलों को देखा है? अपनी राय कमेंट में जरूर साझा करें!

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