मौर्योत्तर कला (Post-Mauryan Art) भारतीय कला इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरण है, जो मौर्य काल (322-185 ई.पू.) के पतन के बाद शुरू हुआ। इस युग में मौर्योत्तर कला ने जन-जीवन, धर्म, और सामाजिक भावनाओं को अभिव्यक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मौर्य काल की राजकीय कला, जो उत्कृष्ट होते हुए भी जनता के मनोभावों को पूरी तरह नहीं दर्शा पाई थी, मौर्योत्तर काल में जन-केंद्रित और अधिक जीवंत हो गई। इस लेख में शुंग, सातवाहन, कुषाण, और अन्य समकालीन कालों की कला, स्थापत्य, मूर्तिकला, और गुफा वास्तुकला का विस्तृत वर्णन है। 😊
Table of Contents
मौर्योत्तर कला का परिचय 🌿
मौर्य काल के बाद, शुंग वंश (184 ई.पू.-73 ई.पू.) के उदय के साथ कला में एक नया युग शुरू हुआ। मौर्य कला, जो मुख्य रूप से राजकीय संरक्षण में पॉलिश्ड पत्थरों और सममित डिजाइनों के लिए जानी जाती थी, जनता से दूरी बनाए रखती थी। लेकिन शुंग काल तक आते-आते कला और सार्वजनिक जीवन के बीच का अंतर कम हो गया। शुंगकालीन कला में जन-सामान्य की भावनाओं, लोक-कथाओं, और सामाजिक जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति दिखाई देती है। इस काल में कला का प्रमुख विषय धर्म से अधिक जन-जीवन था, जिसमें बौद्ध, जैन, और ब्राह्मण धर्मों के साथ-साथ लोक-देवताओं और प्राकृतिक तत्वों को चित्रित किया गया। 🖼️
मौर्योत्तर कला के प्रमुख केंद्रों में भरहुत, साँची, अमरावती, नागार्जुनकोंड, मथुरा, गांधार, और तक्षशिला शामिल थे। इस काल की कला में स्तूप, चैत्य, विहार, तोरण, और मूर्तिकला ने विशेष महत्व प्राप्त किया। सातवाहन, कुषाण, और शक शासकों के संरक्षण ने कला को नई ऊँचाइयाँ दीं। 🌍
शुंगकालीन कला: जन-जीवन का प्रतिबिंब 🚩
पुष्यमित्र शुंग के राज्याभिषेक (184 ई.पू.) के साथ शुंग काल शुरू हुआ। इस काल में कला ने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को केंद्र में रखा। शुंगकालीन कला की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- जन-केंद्रित कला: शुंग काल में कला ने धर्म से हटकर जन-जीवन को चित्रित किया। जातक कथाएँ, बुद्ध के जीवन की घटनाएँ, और लोक-देवताओं (यक्ष, यक्षिणी, नाग, किन्नर, चन्द्रायक्षी, सुदर्शनायक्षी, चुलकोका, महाकोका) को पत्थरों पर उकेरा गया। यह कला वैयक्तिकता को सामाजिकता में बदलने का माध्यम बनी। 😇
- प्रस्तर वेदिकाएँ और तोरण: काष्ठ वेदिकाओं के स्थान पर प्रस्तर वेदिकाओं और भव्य तोरणद्वारों का निर्माण हुआ। ये संरचनाएँ बौद्ध और सामाजिक जीवन से प्रेरित थीं। भरहुत, साँची, और अमरावती के स्तूप इस युग के सर्वोत्तम स्मारक हैं। 🏛️
- अद्धचित्र शैली (रिलीफ): शुंगकालीन कलाकारों ने पूर्ण मूर्तियों के बजाय शिला पर अद्धचित्र (रिलीफ) शैली में उत्कीर्णन को प्राथमिकता दी। इसमें मूर्ति का केवल आमुख (सामने का हिस्सा) उभारा जाता था, जिससे कला में गहराई कम थी, लेकिन अंतिम चरण में प्रौढ़ता आई और मूर्तियाँ स्वाभाविक लगने लगीं। 🎨
- वास्तुशास्त्र का विकास: इस काल में वास्तुशास्त्र के नए विधान स्थापित हुए। बेसनगर का स्तम्भ और विदिशा का गरुड़-स्तम्भ शुंग कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें गंधर्व, यक्ष-यक्षिणी, पशु-पक्षी, और पुष्प-लताओं की आकृतियाँ अनोखी थीं। 🌿
- प्रमुख केंद्र: श्रावस्ती, भीटा, कौशाम्बी, मथुरा, बोधगया, पाटलिपुत्र, भरहुत, साँची, और सारनाथ शुंग कला के प्रमुख केंद्र थे। 🗿
स्तूप और चैत्य: शुंग कला का आधार 🌟
स्तूप इस काल की सबसे महत्वपूर्ण स्थापत्य देन हैं। स्तूप एक गोलाकार मिट्टी का ढेर होता था, जिसे चिता के स्थान पर बनाया जाता था और इसे चैत्य भी कहा जाता था। यह परंपरा बुद्ध काल से पहले की थी, जहाँ स्मृति के रूप में पीपल का वृक्ष रोपा जाता था या मिट्टी का थूहा बनाया जाता था। ऋग्वेद में भी स्तूपों का उल्लेख मिलता है। शुंग काल में छोटे (अल्पेशाख्य) और बड़े (महेशाख्य) स्तूपों का निर्माण हुआ। 😊
- भरहुत का स्तूप: मध्य प्रदेश में स्थित, यह शुंग काल का प्रमुख स्तूप है। इसकी वेदिकाएँ और तोरणद्वार बौद्ध जातक कथाओं और लोक-जीवन से प्रेरित हैं। 🏛️
- साँची का स्तूप: मौर्य काल में अशोक द्वारा निर्मित साँची का महास्तूप शुंग काल में विस्तारित हुआ। इसके तोरणद्वारों पर बुद्ध के जीवन की घटनाएँ (जन्म, बोधि, धर्मचक्र परिवर्तन, महापरिनिर्वाण) प्रतीकों के माध्यम से चित्रित की गईं। 🌳

- अमरावती और नागार्जुनकोंड: ये दक्षिण भारत में सातवाहन काल के महत्वपूर्ण स्तूप हैं, जिनका विकास शुंग काल से शुरू हुआ। 🪔
शुंग काल में बुद्ध की मूर्तियाँ नहीं बनाई गईं, क्योंकि महायान शाखा का उदय नहीं हुआ था। बुद्ध को प्रतीकों (पादुका, बोधिवृक्ष, धर्मचक्र) के माध्यम से दर्शाया जाता था। पत्र, पुष्पलता, और पशु-मानव आकृतियाँ रिलीफ शैली में बनाई गईं। 😇
सातवाहन काल: गुफा वास्तुकला का विकास 🏞️
सातवाहन काल (200 ई.पू.-200 ई.) में पश्चिमी और दक्षिणी भारत में कला का विकास हुआ, विशेष रूप से गुफा वास्तुकला में। पहाड़ियों को काटकर चैत्यगृह (पूजा स्थल) और विहार (भिक्षुओं के निवास) बनाए गए। यह परंपरा मौर्य काल में अशोक द्वारा बाराबर पहाड़ी में आजीवक भिक्षुओं के लिए गुफाएँ बनवाने से शुरू हुई थी। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी आजीवक भिक्षुओं के लिए गुफाएँ बनवाईं, जिन्हें कुमायें कहा गया। 😊
प्रमुख गुफा केंद्र:
- भाजा:
- स्थान: पश्चिमी घाट, पुणे के पास। 🏞️
- विशेषताएँ: यहाँ चैत्यगृह, विहार, और स्तूप बनाए गए। चैत्यगृह 55 फीट लंबा और 26 फीट चौड़ा है, जिसमें 11 फीट ऊँचे स्तम्भ और ठोस चट्टान से बना स्तूप है। परिक्रमा-पथ 2.5 फीट चौड़ा है। दीवारों पर सूर्य और इन्द्र के रिलीफ महत्वपूर्ण हैं, जिसमें सूर्य चार घोड़ों के रथ पर सवार और अंधकार के दैत्य को कुचलते दिखाए गए हैं। 🌞
- महत्व: शुंगकालीन उष्णीय वेशभूषा और कला की प्रारंभिक प्रौढ़ता का उदाहरण। 🖼️
- कोंडन:
- स्थान: कार्ले गुफा से 10 फीट उत्तर। 🏛️
- विशेषताएँ: चैत्यगृह और विहार निर्मित। विहार का मण्डप 23 फीट चौड़ा और 29 फीट लंबा है, जिसमें भिक्षुओं के लिए कक्ष बने हैं। इसे भाजा के बाद निर्मित माना जाता है। 😇
- पीतलखोरा:
- स्थान: अजन्ता से 50 मील दक्षिण-पश्चिम, शतमाला पहाड़ी। 🏞️
- विशेषताएँ: दूसरी सदी ई.पू. में पर्वतीय वास्तु का प्रारंभ। चैत्यगृह और विहार बने। बाद में (महायान काल में) भित्तिचित्र और मूर्तियाँ जोड़ी गईं, जो अजन्ता शैली से मिलती हैं। 🎨
- महत्व: यह स्थान बाद में उजड़ गया, लेकिन भिक्षुओं ने इसे पुनः केंद्र बनाया। 🌿
- अजन्ता:
- स्थान: महाराष्ट्र, औरंगाबाद। 🏛️
- विशेषताएँ: कुल 29 गुफाएँ (25 विहार, 4 चैत्यगृह)। दूसरी सदी ई.पू. से सातवीं सदी ई. तक विकास। प्रारंभ में हीनयान और बाद में महायान मत का केंद्र। भित्तिचित्रों और मूर्तियों में बुद्ध और बौद्ध कथाएँ प्रमुख हैं। 🖼️
- बेडसा:
- स्थान: कार्ले से 10 मील दक्षिण। 🏞️
- विशेषताएँ: छोटा चैत्यगृह, जिसमें प्रस्तर शिल्प का अधिक उपयोग हुआ। प्रवेश द्वार पर हय-संघाट और गज-संघाट (हाथियों का समूह) वाले विशाल स्तम्भ हैं। चैत्यगृह 45.5 फीट लंबा और 24 फीट चौड़ा है। महराबदार छत पहले लकड़ी की थी, बाद में पत्थर की बनाई गई। फ्रेस्को चित्र महायान काल के हैं। 😊
- कार्ले:
- स्थान: पश्चिमी घाट, भाजा के पास। 🏛️
- विशेषताएँ: विशाल चैत्यगृह, हीनयान शैली में सर्वोत्कृष्ट। इसमें दो सिंह शीर्ष स्तम्भ, दुमंजिला मुख मण्डप, काष्ठ निर्मित संगीतशाला, चैत्य वातायन, और 15-15 स्तम्भों की दो पंक्तियाँ हैं। निर्माण पहली सदी ई.पू. में शुरू हुआ। इसे “जंबूद्वीप में श्रेष्ठ” कहा गया। 🌟
- महत्व: वास्तु और शिल्पकला की पूर्णता का प्रतीक। 🖼️
- जुनार:
- स्थान: पुणे से 48 मील उत्तर। 🏞️
- विशेषताएँ: 150 शैल गुफाएँ (10 चैत्य, शेष विहार)। दूसरी सदी ई.पू. से पहली सदी ई. तक निर्मित। हीनयान केंद्र। अलंकरण में श्री, लक्ष्मी, कमल, गरुड़, और सर्प शामिल। 😇
- नासिक:
- स्थान: गोदावरी तट। 🏛️
- विशेषताएँ: 17 गुफाएँ (1 चैत्यगृह, शेष विहार)। प्रारंभिक विहार हीनयानी। नहपान, गौतमीपुत्र शातकर्णी, और यज्ञश्री शातकर्णी के काल में निर्मित। पाण्डुलेण चैत्यगृह (पहली सदी ई.पू.) प्रमुख है। 🪔
- उदयगिरी-खंडगिरी:
- स्थान: ओडिशा, खारवेल के शासनकाल में। 🏞️
- विशेषताएँ: जैन भिक्षुओं के लिए विहार बनाए गए। रानीगुम्फा सबसे बड़ी और दुमंजिली है। हाथीगुम्फा अभिलेख में सातवाहनों का उल्लेख है। 😊
मूर्तिकला: बौद्ध, जैन, और ब्राह्मण प्रभाव 🗿
मौर्योत्तर काल में मूर्तिकला के तीन प्रमुख केंद्र थे: गांधार, मथुरा, और अमरावती। इस काल में बौद्ध, जैन, और ब्राह्मण धर्मों की मूर्तियाँ बनाई गईं। शुंग काल में जैन मूर्तिपूजा शुरू हुई, जैसा कि लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त सिरविहीन नग्न तीर्थंकर मूर्ति से पता चलता है। हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार, मौर्य काल से पहले पूर्वी भारत में जैन मूर्तिपूजा प्रचलित थी। 😇
गांधार कला: यूनानी-भारतीय संश्लेषण 🌍
- विशेषताएँ:
- गांधार कला (पहली सदी ई.पू.-चौथी सदी ई.) यूनानी, रोमन, और भारतीय परंपराओं का मिश्रण थी। यह तक्षशिला, पेशावर, जलालाबाद, हड्डा, बमियान, और स्वातघाटी में विकसित हुई। 🏛️
- कुषाण शासकों (विशेषकर कनिष्क) के संरक्षण में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। बुद्ध की मूर्तियाँ पहली बार बनाई गईं, जो पहले प्रतीकों (पादुका, बोधिवृक्ष) से दर्शाए जाते थे। 😊
- स्लेटी और भूरे स्लेटी पत्थर, लाइम प्लास्टर, और स्टूको का उपयोग हुआ। मूर्तियों में मांसल त्वचा, मोटे कपड़ों की भड़कीली मोड़, और यथार्थवादी शारीरिक विवरण थे। 🌟
- बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो से प्रेरित थीं, लेकिन भावना भारतीय थी। 🖼️
- प्रभाव: गांधार कला का प्रभाव चीन, कोरिया, जापान, और मंगोलिया तक फैला। चौथी सदी ई. में इसका ह्रास हुआ। 😔
- प्रमुख केंद्र: तक्षशिला, पेशावर, जलालाबाद। 🗿
मथुरा कला: भारतीय आत्मा का प्रतीक 🌿
- विशेषताएँ:
- मथुरा कला (दूसरी सदी ई.पू.-तीसरी सदी ई.) भारतीय थी और लाल चकतेदार पत्थर (रूपवास और सीकरी की खदानों से) का उपयोग करती थी। 😊
- बौद्ध, जैन, और ब्राह्मण मूर्तियाँ बनीं। बुद्ध मूर्तियों में प्रभामण्डल, मुण्डित शीश, और एक कंधे पर उत्तरीय दिखाया गया। खड़ी मूर्तियाँ यक्ष परंपरा और बैठी मूर्तियाँ मुनि मुद्रा में थीं। 🧘♂️
- स्त्री मूर्तियाँ आकर्षक और लालित्यपूर्ण थीं, जिनमें न्यूनतम वस्त्र और आभूषण थे। 🌸
- मांगलिक चिह्न (कल्पवृक्ष, मुचकुंद, भद्रशंख, कमल) और लताओं का उपयोग वेदिकाओं के अलंकरण में हुआ। 🌳
- कुषाण और शक राजाओं (कनिष्क, भीम, चष्टन) की विशाल मूर्तियाँ मटगाँव से प्राप्त हुईं। 👑
- प्रमुख केंद्र: मथुरा, सारनाथ, कोसम, कौशाम्बी, श्रावस्ती, साँची, बैराठ। 🏛️
- जैन मूर्तियाँ: कंकाली टीला से प्राप्त मूर्तियाँ और अभिलेखों में जैन श्रावकों को “उतरदाशक” कहा गया। 😇
- ब्राह्मण मूर्तियाँ: शिव (चतुर्भुख लिंग), लक्ष्मी, बलराम, कार्तिकेय, विष्णु, सरस्वती, कुबेर, और दुर्गा (महिषमर्दिनी) की मूर्तियाँ। कुबेर को मदिरापान से जोड़ा गया, जो यूनानी मदिरा देवता से प्रेरित था। 🌟
अमरावती कला: दक्षिण की समृद्धि 🪔
- विशेषताएँ:
- अमरावती कला (150 ई.पू.-350 ई.) सातवाहन और इक्ष्वाकु शासकों के संरक्षण में विकसित हुई। यह बौद्ध धर्म से प्रभावित थी। 🏛️
- अमरावती स्तूप (धान्यकटक, गुंटूर) दूसरी सदी ई.पू. में बना, जिसकी वेदिका का विकास दूसरी-तीसरी सदी ई. तक हुआ। संगमरमर की चित्रांकित पट्टिकाएँ और 193 फीट व्यास की महावेदिका थी। चार तोरणद्वार और पाँच-पाँच स्तम्भ दक्षिणी स्तूपों की विशेषता थे। 😊
- नागार्जुनकोंड का महास्तूप गोलाकार था, जिसका व्यास 106 फीट और ऊँचाई 80 फीट थी। प्रदक्षिणापथ 13 फीट चौड़ा था। 🪔
- जगय्यपेटा से 150 ई.पू. की प्रारंभिक कला प्राप्त हुई। 🌿
- प्रमुख केंद्र: अमरावती, नागार्जुनकोंड, घटशाल, जगय्यपेटा। 🗿
प्रमुख स्तूप और उनकी विशेषताएँ 🌟
- बोधगया:
- अशोक द्वारा निर्मित। जातक कथाएँ चित्रित। 🏛️
- साँची:
- अशोक काल (250 ई.पू.) में निर्मित, शुंग काल में विस्तारित। तीन स्तूप और चार तोरणद्वार। दक्षिण द्वार पर शतकर्णी का दान उल्लिखित। बुद्ध की प्रमुख घटनाएँ प्रतीकों में। 🌳
- अमरावती:
- सफेद संगमरमर से निर्मित। दूसरी सदी ई.पू. में निर्मित, वशिष्टीपुत्र पुलुमावी द्वारा जीर्णोद्धार। अब नष्ट, अवशेष कोलकाता, चेन्नई, और लंदन में सुरक्षित। 🪔
- नागार्जुनकोंड:
- इक्ष्वाकु काल में निर्मित। गोलाकार, 106 फीट व्यास। 🏛️
- तक्षशिला:
- चीरतोपे स्तूप (कनिष्क द्वारा निर्मित) और शाहजी की ढेरी स्तूप गंधार शैली में। स्काइथियन-पार्थियन शैली का झंडियाल स्तूप भी। 🗿
गुफा वास्तुकला: चैत्य और विहार 🏞️
- चैत्य: चिता से संबंधित, पूजा स्थल। केंद्र में स्तूप, आयताकार कक्ष, और अर्द्धगोलाकार छोर। चैत्य खिड़की (घोड़े की नाल के आकार की) विशेषता थी। 😊
- विहार: भिक्षुओं के निवास के लिए गुफाएँ। पश्चिम भारत में भाजा, बेडसा, अजन्ता, पीतलखोरा, नासिक, कार्ले और पूर्व में उदयगिरी-खंडगिरी प्रमुख। 🏛️
गांधार बनाम मथुरा कला: तुलना 🌍
- प्रकृति:
- मथुरा कला भारतीय और आध्यात्मिक थी। गांधार कला यूनानी-रोमन प्रभावित और यथार्थवादी थी। 😇
- सामग्री:
- मथुरा: लाल चकतेदार पत्थर। गांधार: स्लेटी/भूरी चट्टान, स्टूको। 🪨
- संरक्षक:
- मथुरा: कुषाण। गांधार: शक और कुषाण। 👑
- विशेषताएँ:
- मथुरा में आध्यात्मिकता, गांधार में शारीरिक विवरण (मांसल त्वचा, मोटे कपड़े) पर जोर। 🌟
- बुद्ध मूर्तियाँ:
- गांधार: अपोलो से प्रेरित, यथार्थवादी। मथुरा: यक्ष/मुनि परंपरा, प्रभामण्डल। 🧘♂️
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य 🌿
- ख्वारिज्म का टोपरकला: तीसरी-चौथी सदी का कुषाण प्रसाद, अरामाइक लिपि में अभिलेख। 🏛️
- पुरुषपुर का बुर्ज: फाहियान के वृत्तांत में उल्लिखित 13 मंजिली इमारत। 🪔
- मंदिर निर्माण: इस काल में मंदिर निर्माण बाद में शुरू हुआ। बौद्ध स्तूप और गुफाएँ प्रमुख थीं। 😊
निष्कर्ष 🌟
मौर्योत्तर कला ने भारतीय संस्कृति को जीवंत रूप दिया। शुंग काल में जन-जीवन और लोक-कथाओं को चित्रित करने वाली कला, सातवाहन काल में गुफा वास्तुकला, और कुषाण काल में गांधार व मथुरा कला ने भारतीय कला को वैश्विक पहचान दी। स्तूप, चैत्य, विहार, और मूर्तिकला इस युग की देन हैं। बौद्ध, जैन, और ब्राह्मण धर्मों के साथ-साथ यक्ष-यक्षिणी और मांगलिक चिह्नों ने कला को समृद्ध किया। गांधार कला ने यूनानी-भारतीय संश्लेषण को दर्शाया, जबकि मथुरा और अमरावती ने भारतीय आत्मा को जीवंत किया। यह काल भारतीय कला के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। 🌍🙏

