राजस्थान की मृदा (Soils of Rajasthan)

By: LM GYAN

On: 24 June 2025

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राजस्थान की मृदा

मृदा पृथ्वी की भू-पर्पटी पर पाए जाने वाले असंगठित कणों का आवरण है, जो जैविक और अजैविक संगठनों द्वारा निर्मित होती है। यह चट्टानों के अपक्षय, जलवायु, वनस्पति, और अन्य जैविक प्रभावों से बनती है। राजस्थान की मृदा की विविधता भौगोलिक और जलवायु भिन्नताओं के कारण देखने को मिलती है। नीचे राजस्थान की मृदा के प्रकार, निर्माण, वर्गीकरण, समस्याएँ, और संरक्षण के उपायों का विस्तृत विवरण दिया गया है।

मृदा निर्माण

  • परिभाषा: मृदा पृथ्वी की ऊपरी सतह है, जो चट्टानों के टूटने, जलवायु, वनस्पति, और जैविक प्रभावों से बनती है।
  • उत्पत्ति: लैटिन शब्द ‘सोलम’ (अर्थ: फर्श) से।
  • वैज्ञानिक अध्ययन: पेडोलॉजी (मृदा विज्ञान), निर्माण प्रक्रिया: पेडोजिनेसिस
  • प्रक्रिया: चट्टानों का अपक्षय, जैविक पदार्थों का मिश्रण, जलवायु प्रभाव, और समय के साथ मृदा परतों का विकास।

राजस्थान की मृदा की विविधता

  • पश्चिमी मरुस्थल: रेतीली बलुई मृदा (एरिडोसॉल, एन्टीसॉल)।
  • अरावली पर्वत: पथरीली, कंकड़ युक्त लाल मृदा (इन्सेप्टीसॉल)।
  • दक्षिण-पूर्व (हाड़ौती): काली मृदा (वर्टीसॉल)।
  • पूर्वी मैदान: उपजाऊ जलोढ़ मृदा (एल्फीसॉल)।
  • नदी बेसिन (चंबल, बनास, माही): जलोढ़ मृदा।

राजस्थान की मृदा का वैज्ञानिक वर्गीकरण (USDA, 1975)

अमेरिकी मृदा सर्वेक्षण विभाग के आधार पर राजस्थान की मृदा – पाँच प्रकार की :

  1. एरिडोसॉल (शुष्क मृदा):
    • विशेषताएँ: शुष्क जलवायु, उच्च तापमान, कम नमी, जैविक तत्वों का अभाव, कम जल धारण क्षमता।
    • विस्तार: पश्चिमी राजस्थान (बलोतरा, बाड़मेर, फलोदी, जैसलमेर, जोधपुर ग्रामीण, डीडवाना, कुचामन, नागौर, चूरू, नीमकाथाना, सीकर, झुंझुनू)।
    • उपयोग: बाजरा, मूँग, ग्वार (सिंचाई पर निर्भर)।
    • रासायनिक संरचना: कम ह्यूमस, नाइट्रोजन की कमी।
  2. एन्टीसॉल (रेतीली बलुई मृदा):
    • विशेषताएँ: सर्वाधिक विस्तार, न्यूनतम जल धारण क्षमता, विभिन्न जलवायु में पाई जाती है।
    • उप-प्रकार: सायमेन्ट्स, फ्लूवेन्ट्स।
    • विस्तार: पश्चिमी राजस्थान (जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर, गंगानगर, हनुमानगढ़, शेखावाटी)।
    • उपयोग: बाजरा, चना, मोठ।
    • रासायनिक संरचना: कैल्शियम अधिक, ह्यूमस कम।
  3. इन्सेप्टीसॉल (लाल मृदा):
    • विशेषताएँ: अर्ध-शुष्क जलवायु, लौह ऑक्साइड के कारण लाल रंग, ह्यूमस और नाइट्रोजन की अधिकता, मक्का के लिए उपयुक्त।
    • विस्तार: अरावली क्षेत्र (सिरोही, पाली, राजसमंद, उदयपुर, सलूम्बर, भीलवाड़ा, शाहपुरा, चित्तौड़गढ़, जयपुर ग्रामीण, दौसा)।
    • उपयोग: मक्का, जौ, दलहन।
    • नोट: शुष्क जलवायु में नहीं पाई जाती।
  4. एल्फीसॉल (जलोढ़ मृदा):
    • विशेषताएँ: सर्वाधिक उपजाऊ, कैल्शियम और फॉस्फोरस की अधिकता, तीव्र नाइट्रोजन स्थिरीकरण।
    • विस्तार: पूर्वी मैदानी प्रदेश (जयपुर ग्रामीण, सलूम्बर, कोटपूतली-बहरोड़, खैरथल-तिजारा, अलवर, डीग, भरतपुर, दौसा, टोंक, गंगापुर सिटी, सवाई माधोपुर)।
    • उपयोग: गेहूँ, सरसों, चना, धान।
    • उत्पत्ति: नदी अवसादों से।
  5. वर्टीसॉल (काली मृदा):
    • विशेषताएँ: उच्च मृत्तिका (क्ले), सर्वाधिक जल धारण क्षमता, लोहा और एल्यूमिनियम की प्रधानता, कपास के लिए उपयुक्त।
    • विस्तार: हाड़ौती पठार (कोटा, बूंदी, बाराँ, झालावाड़)।
    • उपयोग: कपास, सोयाबीन, गेहूँ।
    • उत्पत्ति: ज्वालामुखी लावा के विखंडन से।

राजस्थान की मृदा का सामान्य वर्गीकरण (राज्य द्वारा)

राजस्थान की मृदा के 8 प्रकार:

  1. जलोढ़ मृदा:
    • उपनाम: दोमट, काप, कछारी, बाढ़ वाली मृदा।
    • उत्पत्ति: नदियों के अवसादों से (चंबल, बनास, माही)।
    • विस्तार: अलवर, भरतपुर, धौलपुर, जयपुर ग्रामीण, टोंक, गंगापुर, सवाई माधोपुर, कोटपूतली-बहरोड़, खैरथल-तिजारा, डीग।
    • विशेषताएँ: सर्वाधिक उपजाऊ, कैल्शियम, पोटाश, फॉस्फोरस अधिक, ह्यूमस और नाइट्रोजन की कमी।
    • उप-प्रकार: बांगर (प्राचीन), खादर (नवीन)।
    • उत्पादन: गेहूँ, राई, जौ, सरसों।
  2. काली मृदा:
    • उपनाम: लावा, कपास, रेगुर, चरनोजम, ज्वालामुखी मृदा।
    • विस्तार: हाड़ौती पठार (कोटा, बूंदी, बाराँ, झालावाड़)।
    • विशेषताएँ: बारीक कण, उच्च जल धारण क्षमता, लोहा, एल्यूमिनियम (टीटेनोफेरस मैग्नेटाइट से काला रंग), कैल्शियम, पोटाश अधिक।
    • उत्पादन: कपास, सोयाबीन, गेहूँ।
  3. रेतीली बलुई मृदा:
    • उपनाम: बालू, प्यासी मृदा।
    • उत्पत्ति: टेथिस सागर के अवशेष।
    • विस्तार: पश्चिमी राजस्थान (जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर, गंगानगर, हनुमानगढ़, शेखावाटी)।
    • विशेषताएँ: मोटे कण, न्यूनतम जल धारण क्षमता, कैल्शियम अधिक।
    • उत्पादन: बाजरा (सर्वाधिक), मूँग, मोठ, ग्वार, चना।
    • उप-प्रकार: रेतीली, बलुई, मिश्रित।
  4. क्षारीय/लवणीय मृदा:
    • उपनाम: रेह, ऊसर, कल्लर, चोपन।
    • उत्पत्ति: अधिक सिंचाई, शुष्क जलवायु, लवणीय पदार्थों की अधिकता।
    • विस्तार: गंगानगर, बीकानेर, जालौर, बाड़मेर, नागौर, फलोदी, सांभर।
    • विशेषताएँ: सर्वाधिक अनुपजाऊ, उत्पादन क्षमता कम।
    • उपयोग: लवण-सहिष्णु फसलें (जौ, ग्वार)।
  5. पर्वतीय मृदा:
    • उपनाम: वनीय, अधूरी निर्माण वाली मृदा।
    • उत्पत्ति: पर्वतों के अपक्षरण से।
    • विस्तार: अरावली (उदयपुर, सिरोही, पाली, अजमेर, राजसमंद, कोटपूतली-बहरोड़, खैरथल-तिजारा)।
    • विशेषताएँ: अनुपजाऊ, पथरीली।
    • उपयोग: सीमित कृषि, वनस्पति।
  6. लाल चिकनी मृदा:
    • उपनाम: लोमी मृदा।
    • विस्तार: बांसवाड़ा, चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर, दक्षिणी उदयपुर (माही बेसिन)।
    • विशेषताएँ: लौह ऑक्साइड से लाल रंग, ह्यूमस, नाइट्रोजन अधिक।
    • उत्पादन: गन्ना, चावल, मक्का。
  7. लाल-काली मृदा:
    • विस्तार: उदयपुर, शाहपुरा, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़।
    • विशेषताएँ: लाल और काली मृदा का मिश्रण, मध्यम उपजाऊ।
    • उत्पादन: मक्का, चावल, गन्ना, अफीम, सोयाबीन, कपास।
  8. भूरी मृदा:
    • उपनाम: बजरी मृदा।
    • विस्तार: बनास बेसिन (चित्तौड़गढ़, राजसमंद, टोंक, भीलवाड़ा, अजमेर), लूनी बेसिन (पाली, नागौर)।
    • विशेषताएँ: मध्यम जल धारण क्षमता।
    • उत्पादन: तंबाकू, सरसों, कपास, गेहूँ, जौ।

राजस्थान कृषि विभाग का वर्गीकरण

  • 14 प्रकार: जलोढ़, काली, रेतीली, क्षारीय, पर्वतीय, लाल चिकनी, लाल-काली, भूरी, मिश्रित, कंकड़ युक्त, लवणीय, चिकनी, रेगुर, दोमट।

मृदा समस्याएँ

  1. मृदा अपरदन:
    • परिभाषा: प्रवाहित जल या पवन द्वारा मृदा की ऊपरी परत का कटाव, जिसे ‘मृदा और किसान की रेंगती मृत्यु’ कहा जाता है।
    • प्रकार:
      • पवन अपरदन: थार मरुस्थल (राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब), रेत का खेतों पर जमाव।
      • परतदार अपरदन: नदी घाटियों, बाढ़ क्षेत्रों में, ऊपरी परत हटती है।
      • नदिका अपरदन: छोटी सरिताएँ वर्षा में मृदा काटती हैं।
      • अवनालिका अपरदन: नालियों में जल बहाव से गहरी खाइयाँ, उत्खात भूमि (चंबल, यमुना)।
    • प्रभाव: उर्वरता हानि, कृषि उत्पादन में कमी।
  2. लवणीयता/क्षारीयता:
    • कारण: अत्यधिक सिंचाई, शुष्क जलवायु, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम लवणों का सतह पर जमाव।
    • विस्तार: गंगानगर, बीकानेर, सांभर, जालौर।
    • प्रभाव: मृदा ऊसर, अनुपजाऊ।
    • उपाय: जिप्सम, लवण-सहिष्णु फसलें।
  3. जलमग्नता:
    • कारण: त्रुटिपूर्ण अपवाह, अत्यधिक वर्षा, उच्च भौमजल स्तर, अधिक सिंचाई।
    • प्रभाव: मृदा उर्वरता हानि, फसल क्षति।
    • विस्तार: नहर सिंचित क्षेत्र (गंगानगर, हनुमानगढ़)।
  4. मरुस्थलीकरण:
    • परिभाषा: मरुस्थल का प्रसार।
    • विस्तार: उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, वृष्टि-छाया क्षेत्र।
    • कारण: अत्यधिक चराई, वनों की कटाई, पवन अपरदन।
    • प्रभाव: कृषि भूमि हानि।
  5. अन्य: भूमि का अत्यधिक दोहन, अतिचारण, मृदा प्रदूषण।

मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा एक अनवीकरणीय संसाधन है, जिसके संरक्षण के लिए निम्न उपाय अपनाए जा सकते हैं:

  1. वन संरक्षण:
    • वनों की कटाई पर रोक, जड़ें मृदा को बांधती हैं।
    • लाभ: वर्षा प्रेरण, मृदा निर्माण में वृद्धि।
    • उदाहरण: संरक्षित वन क्षेत्र।
  2. वृक्षारोपण:
    • नदी घाटियों, बंजर भूमि, पहाड़ी ढालों, मरुस्थलीय सीमाओं पर।
    • लाभ: पवन अपरदन नियंत्रण (थार मरुस्थल में)।
    • उदाहरण: राजस्थान, हरियाणा, गुजरात में वृक्षारोपण।
  3. बाढ़ नियंत्रण:
    • बाँध, नहरों द्वारा जल प्रवाह नियंत्रण।
    • लाभ: मृदा अपरदन में कमी।
    • उदाहरण: चंबल परियोजना।
  4. नियोजित चराई:
    • पहाड़ी ढालों पर चराई नियंत्रण।
    • लाभ: वनस्पति आवरण संरक्षण।
  5. बंध निर्माण:
    • अवनालिका अपरदन रोकने के लिए बंध।
    • लाभ: मृदा उर्वरता, जल संरक्षण, समतलीकरण।
  6. सीढ़ीदार खेती:
    • पर्वतीय ढालों पर चबूतरे।
    • लाभ: अपरदन रोकथाम, जल उपयोग।
  7. समोच्च रेखीय जुताई:
    • समान ऊँचाई पर जुताई।
    • लाभ: मृदा और आर्द्रता संरक्षण।
  8. पट्टीदार कृषि:
    • खेतों में घास की पट्टियाँ।
    • लाभ: पवन अपरदन नियंत्रण।
  9. शस्यावर्तन:
    • विभिन्न फसलों का क्रमिक बुआई।
    • लाभ: मृदा उर्वरता संरक्षण।
  10. भूमि उद्धार:
    • उत्खात भूमि समतलीकरण (चंबल, यमुना)।
    • लाभ: कृषि योग्य भूमि पुनर्जनन।
  11. मल्चिंग:
    • जैविक पदार्थों से मृदा ढकना।
    • लाभ: नमी संरक्षण, अपरदन रोकथाम।
  12. कंटूर कृषि और रोधिकाएँ:
    • समोच्च रेखा पर रोधिका और खाई।
    • लाभ: जल अपरदन नियंत्रण।
  13. वेदिका कृषि:
    • सीढ़ीनुमा खेती।
    • लाभ: ढाल पर कृषि, अपरदन रोकथाम।
  14. अंतर-फसलीकरण:
    • विभिन्न फसलों की एकांतर कतारें।
    • लाभ: मृदा गुणवत्ता संरक्षण।
  15. रक्षक मेखलाएँ:
    • पेड़ों की कतारें।
    • लाभ: पवन अपरदन नियंत्रण।
  16. अन्य:
    • वनीकरण, पुनर्वनीकरण।
    • निर्वनीकरण, अतिचारण नियंत्रण।
    • ड्रिप/स्प्रिंकलर सिंचाई।
    • बालूका स्तूप स्थिरीकरण (झाड़ियाँ, घास)।
    • अम्लीय मृदा उपचार: जिप्सम।
    • लवण-सहिष्णु फसलें।

निष्कर्ष

राजस्थान की मृदा में रेतीली बलुई (पश्चिमी मरुस्थल) से जलोढ़ (पूर्वी मैदान) और काली (हाड़ौती) तक विविधता है। एरिडोसॉल, एन्टीसॉल, इन्सेप्टीसॉल, एल्फीसॉल, और वर्टीसॉल इसके वैज्ञानिक प्रकार हैं। मृदा अपरदन (पवन, अवनालिका), लवणीयता, जलमग्नता, और मरुस्थलीकरण प्रमुख समस्याएँ हैं। वन संरक्षण, वृक्षारोपण, सीढ़ीदार खेती, और शस्यावर्तन जैसे उपाय मृदा संरक्षण में सहायक हैं।

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