ताम्र पाषाणिक संस्कृति के राजस्थान में स्थान
मानव ने सर्वप्रथम 5 हजार ईसा पूर्व ताँबे की खोज की थी। इस संस्कृति के लोग पत्थर के साथ-साथ ताँबे की वस्तुओं का उपयोग करते थे। कई बार काँसे का उपयोग भी करते थे। यह सभ्यता ग्रामीण पशुचारी व कृषक समुदाय से संबंधित थी। यह लोग पहाड़ियों व नदियों के आस पास रहते थे। इस संस्कृति के लोग गैरिक मृदभाण्ड प्रयोग में लेते थे। इसके अलावा काले व लाल (कृष्ण-लोहित) मृदभाण्ड इस संस्कृति में सर्वाधिक प्रचलित व सर्वाधिक प्राप्त हुए हैं। यह मृदभाण्ड चाक से बनाये जाते थे। सर्वाधिक ताँबे के उपकरण (424 ताम्रवस्तु) मध्यप्रदेश के गुनेरिया स्थान से प्राप्त हुए।
विभिन्न ताम्रपाषाणिक स्थल
ताम्र व पाषाण युगीन सभ्यता अवशेष-
- कालीबंगा
- बॉलाथल
- गणेश्वर
- गिलुण्ड
- ओडियाणा
- आहड
1. कालीबंगा सभ्यता :-
यह सिन्धु घाटी सभ्यता के समकालीन राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थल है। सिन्धु घाटी में सर्वप्रथम 1921 में हड़प्पा को खोजा गया। 1922 में मोहनजोदड़ों को खोजा गया। ये दोनों स्थान वर्तमान में पाकिस्तान में चले गये। सिन्धु घाटी का तीसरा महत्वपूर्ण स्थल कालीबंगा है। दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सिन्धु घाटी की तीसरी राजधानी कहा है इसकी खोज 1951-52 में अमलानन्द घोष ने की तथा इसका विस्तृत उत्खनन 1961 से 1969 तक ब्रजवासी लाल व बालकृष्ण थापर ने किया था। यह क्षेत्र घग्घर नदी के किनारे हनुमानगढ़ जिले में स्थित है (घग्घर नदी सरस्वती नदी का अवशेष है)
नोट :- घग्घर नदी सरस्वती के अवशेष पर बहती है ऋग्वेद में उल्लिखित 99 नदियों में से सरस्वती का सबसे महत्वपूर्ण नदी के रूप में उल्लेख हुआ है सरस्वती को ऋग्वेद में नदीत्मा (नदियों में श्रेष्ठ) कहा गया है। ऋग्वेद में राजस्थान की 3 नदियों का उल्लेख है।
1. सरस्वती
2. दृषद्वती
3. अपाय।
बंगा शब्द पंजाबी भाषा का है जिसका अर्थ है बंगड़ी या चूड़ी कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ काली चूडियाँ है। कालीबंगा से हड़प्पा व प्राक् हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। इस सभ्यता का समय 2350 से 1750 ई. पू. है, रेडियो कार्बन पद्धति द्वारा माना गया है।
कालीबंगा की विशेषता :-
- नगर नियोजन – नगर का दो भागों में विभाजन
- पश्चिमी भाग दुर्गीकृत तथा पूर्वीभाग अदुर्गीकृत
- समकोण पर काटती सड़कें। ग्रीन सिस्टम /शतरंज जैसी।
- पक्की व ढकी हुई नालियों की व्यवस्था।
- सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन पर आधारित राजस्थान का आधुनिक नगर- जयपुर है।
- ऋग्वेद के सातवें मण्डल की रचना सरस्वती नदी (घग्घर) की उपत्यका (किनारे) में हुई थी।
- जुते हुए खेत के एकमात्र साक्ष्य यहीं से प्राप्त हुए हैं। अग्निकुण्ड के दृश्य, 7 अग्नेवैदिकाएँ मिली, युग्म समाधियाँ, बेलनाकार मुहरें, ताँबे के बैल की आकृति, भूकम्प के साक्ष्य, ईंटों के मकान के साक्ष्य मिले हैं।
- मुख्य फसलें गेहूँ व जौ थी। कपास को इस सभ्यता में सिण्डन कहा जाता था। कालीबंगा सिंधु सभ्यता का एकमात्र स्थल है। यहाँ से मातृदेवी की मूर्तियाँ प्राप्त नहीं हुई। सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी (प्रथमः द्वितीय हड़प्पा, मोहनजोदडों) व इसे दीन हीन बस्ती कहा जाता है।
- ये लोग शव को गाड़ते थे, शव के पास बर्तन, गहने आदि रखते थे। ये पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। इनकी लिपी दायें से बायें लिखी जाती थी जिसे सर्पाकार, गोमूत्राकार या बोस्ट्रॉफेदम कहते हैं। इसको अभी तक पढ़ा नहीं गया है। यहाँ से अग्नि वैदिकाएँ भी (हवन कुण्ड) मिली हैं। इनमें जानवरों की हड्डियाँ भी मिली हैं जो उनकी बली प्रथा प्रचनल को सिद्ध करती हैं। इनके चूल्हे वर्तमान तन्दूर की तरह के थे।
सिन्धु घाटी में जो घर मिले हैं उनके दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर गली में खुलते हैं। कालीबंगा में भी ऐसे ही घर मिले हैं। इसका एकमात्र अपवाद लोथल (गुजरात) है। यहाँ पर घर के दरवाजे मुख्य सड़क पर ही खुलते हैं। कालीबंगा से खिलौना गाड़ी मिली है भूकम्प के अवशेष मिले हैं। लकड़ी की बनी नालियाँ मिली हैं। कालीबंगा से काले मृद पात्र मिले हैं। हरिण चित्र युक्त बाहर खुरदरे चित्र मिले। यहाँ से जो प्राकृ हड़प्पा मृदभाण्ड मिले है उन्हें अमलानंद घोष ने “सोथी मृदभाण्ड’ कहा। गेहूँ व जौ के अवशेष मिले समकोण पर दो फसलें एक साथ बोयी जाती थी। सिन्धु घाटी में कपास को सिडन कहा जाता था: कालीबंगा से बालक की खोपड़ी मिली है जिसमें छह छेद हैं ये ‘शल्य चिकित्सा का अवशेष माना गया। कालीबंगा से 7 अग्नि वैदिकाएँ मिली हैं। सिन्धु से किसी प्रकार के मंदिर अवशेष नहीं मिले; कालीबंगा से ‘स्वास्तिक का चिह्न मिला है; यहाँ सिक्के मिले हैं। एक सिक्के पर व्याघ्र व दूसरे पर कुमारी देवी चित्र मिला है। ये कुत्ते को पालते थे। यहाँ पक्की ईंटों के साथ कच्ची ईंटों के भी मकान मिले हैं, कच्ची ईंटों के मकान मिलने कारण इसे ‘दीन हीन बस्ती” कहा गया है। कालीबंगा नगर भी रक्षा प्राचीर से घिरा था इसलिए कालीबंगा को दोहरे परकोटे की सभ्यता कहा है। कालीबंगा सड़के 5-7.20 मी. तक चौड़ी थी व गलियों की चौड़ाई 1.8 मी.। कालीबंगा से पशु अलंकृत ईंटें मिली हैं। कालीबंगा से मिट्टी, ताँबे, काँसे की चूड़ियाँ मिली। कालीबंगा में बलि प्रथा का प्रचलन था। कालीबंगा से तीर भी मिले हैं। कुत्ता कालीबंगा का पालतु पशु था। कालीबंगा हड़प्पा की तरह अवतल चक्की, सालन, सिल बट्टा सेलखड़ी मिट्टी की मुहरें मिली। कालीबंगा में शव दफनाते थे; कालीबंगा से मातृदेवी कोई मूर्ति नहीं मिली।
2. सोंथी सभ्यता :-
बीकानेर, खोज -1953 अमलानंद घोष , इसे “कालीबंगा प्रथम” कहते हैं।
3. रंगमहल सभ्यता :-
हनुमानगढ़, घग्घर नदी, उत्खनन् 1952 हन्नारिड (स्वीडन) द्वारा। यह समय 1000 से 300 ई.पूर्व है। यहाँ कनिष्क प्रथम व कनिष्क तृतीय की मुद्रा पंचमार्क के सिक्के मिले हैं। रंगमहल से 105 ताँबे को सिक्के मिले। गुरु शिष्य की मूर्तियाँ मिली, गांधार शैली की मूर्तियाँ मिली हैं। यहाँ से मृणमूर्तियाँ मिली जिन पर गांधार शैली की छाप के कुछ पंचमार्क सिक्के मिले। यहाँ से कनिष्क I व कनिष्क III सिक्के मिले। वासुदेव काल के सक्के मिले। यहाँ से 105 ताँबें सिक्के मिले। गुरु शिष्य की मूर्ति मिली। यहाँ से घंटाकार मृदपात्र, टोंटींदार घड़े, प्याले, कटोरे, बर्तनों के ढक्कन, दीपक, दीपदान, धूपदान मिले। अनेक मृणमूर्तियाँ मिली। जिन पर श्रीकृष्ण के अंकन मिले। ये मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं। बच्चों के खेलने की मिटटी की छोटी पहियेदार गाड़ी मिली।
पीलीबंगा – सरस्वती / घग्घर, हनुमानगढ़ सिंधु सभ्यता अवशेष। विशेष प्रकार के घड़े मिले। बाबा रामदेव का मंदिर मिला। पीपल वृक्ष के प्रमाण मिले।
4. गणेश्वर सभ्यता :-
कांतली नदी नीम का थाना सीकर।
इस सभ्यता की खोज 1972 में रतनचन्द्र अग्रवाल ने की व इसका उत्खनन 1978 में रतनचन्द्र अग्रवाल व विजय कुमार ने किया।
गणेश्वर को “ताम्र सभ्यताओं की जननी” कहा जाता है। ध्यान रहे ताँबा जिला झुंझुनूँ को व ताम्रवती नगरी आहड़ को कहा जाता है। इस सभ्यता का समय 2800 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व माना गया है।
यहाँ से प्राक् हड़प्पा व हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। यहाँ भवन निर्माण में पत्थर का उपयोग होता था। यहाँ से पत्थर के पूल व मकान, ताँबे का मछली पकड़ने का कांटा मिला है। दोहरी पेचदार पिनें मिली हैं। ऐसी पिनें मध्य एशिया में मिली हैं। सिन्धु घाटी में ताँबा यहीं से निर्यात होता था। इसलिए इसे ‘पुरातत्व का पुष्कर कहा जाता है। यहाँ के लोग मांसाहारी थे। यहाँ से 2 हजार ताँबे के उपकरण मिले, गणेश्वर से नालीदार प्याला मिला। यहाँ से प्राप्त ताँबें की सामग्री में 99 प्रतिशत ताँबा था। गणेश्वर से जो मृदपात्र प्राप्त हुए हैं वे ‘कृष्णवर्णी मृदपात्र / गैरूक मृदपात्र’ कहलाते हैं। गणेश्वर से प्राप्त ‘रिजवर्ड शिल्प मृदभाण्ड’ गणेश्वर के अलावा सिन्धु घाटी के बनवाली (हरियाणा) से मिला है ।
5. आहड़ सभ्यता / ताम्र वती नगरी / आघाटपुर :-
धुलकोटा-उदयपुर- आहड़ में मेवाड के महाराणाओं का दाह संस्कार होता था इसे ‘महासतियों का टिल्ला’ भी कहा है।
शिलालेखों में आहड़ का प्राचीन नाम ‘ताम्रवती’ मिलता है। 10वीं 11वीं शताब्दी में इसे ‘आघाटपुर’ नाम से जाना जाता था। स्थानीय लोग इसे धूलकोट कहते थे। यहाँ के लोग लाल, भूरे व काले मृदभाण्ड प्रयोग में लेते थे जिन पर रेखीय व सफेद बूँदों वाले डिजाइन बने हुए है।
आहड़ सभ्यता आयड़ नदी के किनारे है। आहड़ संस्कृति बनास व उसकी सहायक नदियों के आस-पास पनपी इसलिए इसे ‘बनास संस्कृति’ भी कहते हैं। इसकी खोज-1953 में अक्षय कीर्ति व्यास, 1956 आर.सी. अग्रवाल ने तथा विस्तृत उत्खनन-1961-62 में हंसमुख धीरजलाल सांकलिया, वी.एन. मिश्र ने किया। आहड़ से पाषाण-ताम्र तथा लौहयुगीन अवशेष मिले हैं।
इस सभ्यता का समय 1800 ई.पू. से 1200 ई.पू. है। गोपीनाथ शर्मा ने इस सभ्यता का समय 1900 से 1200 ई.पू. बताया है। यहाँ से काले व लाल, भूरे रंग के मृद्भांड मिले हैं, कृष्ण लोहित मृदपात्र मिले हैं। श्वेत रंग चित्रित पात्र विशेष हैं। चित्रों पर रेखा व ज्यामितिय आकार की बहुलता है। बड़े अनाज रखने के मृद्भाण्डों को स्थानीय भाषा में के आभूषण सीप, बीज, मूंगा, मूल्यवान पत्थरों के बने होते थे। मृतक गोरे व कोट कहते हैं। ये सभ्यता आठ बार बनी व उजड़ी। आहड़वासियों को आभूषण के साथ गाड़ते थे। जिसका सिर उत्तर व पाँव दक्षिण में करते थे। ये ताँबा गलाना जानते थे।
सिन्धु सभ्यता को ताम्रधातु तथा उससे बनी वस्तुओं की सप्लाई (आपूर्ति) आहड़ सभ्यता से होती थी। यहाँ ताम्र उद्योग में बर्तन व उपकरण बनाना प्रमुख व्यवसाय था । आहड़ सभ्यता के लोग मकान गीली मिट्टी (गारा) व पत्थर से बनाते थे। नींव में प्रायः पत्थरों का प्रयोग करते थे। पशुपालन इस अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था।
आहड़ से 6 यूनानी ताम्र मुद्राएँ व तीन मोहरें मिली हैं। जिन पर एक तरफ त्रिशूल व दूसरी तरफ अपोलो देवता का चित्र व यूनानी भाषा में मोहरों पर ‘बिहितभ् विस’, ‘पलितसा’ तथा ‘तातीय तोम सन’ अंकित हैं। आहड़ से एक बैल की मूर्ति मिली जिसे ‘बनाशियल वूल’ नाम दिया
गया। इसके अलावा आहड़ से बहुमुखी चूल्हे, पैर से चालित चक्की, सूत कातने के चरखे, लोहे की वस्तुएँ, ईरानी धूप, दीप पात्र मिले हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में लोहे का प्राचीनतम साक्ष्य आहड़ से मिला है। चावल व बाजरा आहड़वासियों का मुख्य खाद्यान्न फसल थी। ध्यान रहे सिन्धु घाटी में चावल के अवशेष लोथल (गुजरात) से मिले हैं। ताम्र निर्मित छल्ले, चूडियाँ, सुरमें की सलाइयाँ, कुल्हाड़ियाँ आदि भी बनाई जाती थी। जहाँ कालीबंगा सभ्यता नगरीय थी वहीं आहड़ सभ्यता
ग्रामीण थी| आहड़ में पानी सोखने के लिए गड्ढे बने मिले जिनमें घड़े के उपर घड़ा रखते थे। इस सभ्यता का संबंध ईरान से है, जबकि सिन्धु सभ्यता का संबंध मेसोपोटोमिया से है। बर्तन निर्माण में चाक का प्रयोग किया गया। आहड़ में ताँबे की छह मुद्राएँ मिली। एक मुद्रा त्रिथूल अन्य मुद्रा यूनानी शैली।
कपड़ों की छपाई के ठप्पे, शरीर से मैल छुड़ाने के लिए झांबे। तौल के बॉट मिले। गेहूँ, ज्वार, चावल के प्रमाण मिले। पत्थर की अन्न पीसने की चक्की, रंगों का प्रयोग, ताँबा गलाने की भट्टी। कुत्ता, गेंड़ा, हाथी, मेंढ़क पशु पालने के प्रमाण मिले।
Boss aapne to website me hi sabko piche chor Diya h mene aaj Tak esi website nhi dekhi h or na hi Etna meterial
Joss the boss Laxaboss